Sunday, September 17, 2006

गीत कितना अजब संग्राम है


अजब संग्राम है.कितना

हर क्षण पराजय हो रही पर
जीतने का नाम है
कितना अजब संग्राम है.

इस जन्म की सौगन्ध हम
भूखे लड़े हैं भूख से.
तन में अगन, मन में अगन,
फिर भी जुड़े हैं धूप से.

खाई बनाकर पाटना,
दुख से दुखों को काटना
कितना निरर्थक काम है.

कितना अजब संग्राम है.

जल की सतह पर सिल गये,
हल्की हवा से हिल गये.
कीचड़ भरे संसार में,
जलजात जैसे खिल गये.

जल से न ऊँचे जा सकें,
जल से न नीचे आ सकें
कितना विवश विश्राम है.
कितना अजब संग्राम है.

कुछ दर्द की गरिमा बढ़े,
आँसू पिये हँसते रहे.
विद्रोह नगरों से किया,
वीरान में बसते रहे.

कुण्डल कवच के दान का,
या कर्ण के अभियान का
कितना दुखद परिणाम है.
कितना अजब संग्राम है.

यह अँधेरा तो नया बिल्कुल नया है


यह अँधेरा तो नया बिल्कुल नया है.
और मेरी दृष्टि है प्राचीन अति प्राचीन.

साँस श्यामल हो गयी ऐसा अँधेरा है.
प्यास पागल हो गयी ऐसा अँधेरा है.
डस लिया युग चेतना को इस अँधेरे ने,
उम्र काजल हो गयी ऐसा अँधेरा है.

साध्य पीढ़ी का नया बिल्कुल नया है.
और मेरी सिद्धि है प्राचीन अति प्राचीन.

है पराजित दीप 'औ' जेता अँधेरा है.
सूर्यवादी भीड़ का नेता अँधेरा है.
रौशनी की साम्प्रदायिकता विषैली है.
मंच से उपदेश यह देता अँधेरा है.

धर्म तो मेरा नया बिल्कुल नया है.
और मेरी भक्ति है प्राचीन अति प्राचीन.

अब अँधेरे से मुझे संतोष होता है.
यह उजाला धमनियों में रोष बोता है.
रात मुझको अंक में भरकर यही बोली,
सूर्य सा दिखना यहाँ अब दोष होता है.

रूप यह मेरा नया बिल्कुल नया है.
और मेरी सृष्टि है प्राचीन अति प्राचीन.

कुछ तो होना ही था आखिर मेरे सपनों का



कुछ तो होना ही था आखिर मेरे सपनों का.
या तो ये सच ही हो जाते या फिर टूट गये.

टूटे सम्बन्धों को चाहा लेकिन नहीं जुड़े.
वन को जाते राम कि जैसे वापस नहीं मुड़े.
सुन रे मन इसमें कोई अनहोनी बात नहीं,
पंखहीन थे पंछी इच्छाओं के नहीं उड़े.

कुछ तो होना ही था आखिर मेरे अपनों का.
या तो ये खुश ही हो जाते या फिर रूठ गये.

आँखों से शबनम जन्मी पर मौसम वही रहा.
सूरज जैसा तपा, मगर तम का आरोप सहा.
वैसे, मन के सागर में दिन रात ज्वार उठते,
पर पीड़ा का शिलाखंड तो तिल भर नहीं बहा.

कुछ तो होना ही था आखिर कल्पित रत्नों का.
या तो ये अंजलि में आते या फिर छूट गये.

इस युग में भी संवेदन से रीत नहीं पाया.
किसी पराजित प्रतियोगी को जीत नहीं पाया.
आशा तो कर में जयमाल लिये थी पर मैंने,
उत्सव में सम्मोहन वाला गीत नहीं गाया.

कुछ तो होना ही था आखिर भावुक वचनों का.
दृग से बहते या तो फिर अधरों से फूट गये.

तम का पीना आसान नहीं होता



नेह आग के चरणों पर
धर देना पड़ता है.
सुन री रजनी, तम का पीना
आसान नहीं होता.


स्वर्ण सरीखी देह धुंऍ का
मोरमुकुट पहिने,
तिल-तिल कर जलने वाले
क्षण हैं मेरे गहने.

पुनर्जन्म जब तक सूरज का
निश्चित नहीं लगे,
नत शिर होकर व्यंग मुझे
झंझाओं के सहने.

देख आग को चंदन सा
कर लेना पड़ता है.
सुन री रजनी, हँसकर जीना
आसान नहीं होता.

कुटिया हो या महल
मुझे तो सीमा में रहना.
सबको नींद दिलाने वाली
ज्योति कथा कहना.
रामचन्द्र को सिया मिली औ
मिले अवध को राम,
इसी खुशी में मुझे वंश के
साथ पड़ा दहना.

बुझ-बुझ कर हर रोज जन्म
फिर लेना पड़ता है.
सुन री रजनी, मरकर जीना
आसान नहीं होता.

मेरा तो उद्देश्य अँधेरे से
केवल लड़ना.
सुप्त विश्व के माथे पर फिर
ऍक भोर जड़ना.
दिनकर भी जब ओढ़ पराजय
गत हो जाता है.
ऐसे कठिन समय में फिर
इतिहास नया गढ़ना.

जड़ माटी में संवेदन
भर देना पड़ता है.
सुन री रजनी, दीपक बनना
आसान नहीं होता.

यह नगर व्यापारियों का है


घूमकर सारा नगर कितना थका,
गीत मेरा बोल बस इतना सका-
यह नगर ! यह नगर व्यापारियों का है.

यंत्रवत सी ज़िन्दगी की यंत्रणा
रोज करती है धुंऍ से मंत्रणा.
और सबसे प्यार केवल धूप से
आदमी करता यहाँ पर है घृणा.

शाम तक का श्रम, पसीना आ गया,
और यह अहसास मन पर छा गया,
यह नगर ! यह नगर लाचारियों का है.

हर संगठन अलगाव बोने के लिये ,
दशरथ नमन युवराज होने के लिये.
ये संस्थाऍं धर्म या साहित्य की,
बस काम आती दाग़ धोने के लिये.

ऍक टूटा स्वप्न, आखिर हारकर,
भोर में बतला गया मन मारकर-
यह नगर ! यह नगर संसारियों का है.

ये लोग, जैसे लूटकर कुछ, भागते,
अपराधियों से उम्र भर फिर जागते.
क्रूरता आतंक वाली गोलियाँ,
असहाय लोगों पर अचानक दागते.

थपथपाकर द्वार, यह बोली हवा,
ऐतिहासिक सत्य, मत इसको दबा-
यह नगर ! यह नगर तातारियों का है.

मेरे मन के ताल में



मेरे मन के ताल में,
शंका वाली कंकरी,
तुमने फेंकी जोर से,
बहुत विकल हूँ भोर से.

खंधित तेरी साधना,
ऍक बुलबुला कह गया.
थोड़ा सा जो धैर्य था,
लहरों के संग बह गया.

अरुणोदय में स्वर्ण-किरण,
जाने कैसे ब्याह गयी ?
अंधकार के चोर से,
बहुत विकल हूँ भोर से.

गंधवती हो गयी हवा,
चंदन के सहवास से.
किन्तु न चंदन मुक्त हुआ,
दंशन के भुजपाश से.

हे भगवान ! सुना ऐसा,
नाग और खुशबू दोनों,
बँधे प्रणय की डोर से,
बहुत विकल हूँ भोर से.

सूरजवंशी सपने भी,
हतप्रभ हो दृग से निकले.
आशा वाले शकुन सभी,
कंचन के मृग से निकले.

रूठा हुआ समय देखो,
पालागन कह गया मुझे,
सुधियों के उस छोर से,
बहुत विकल हूँ भोर से.

यायावर जैसा जीवन जीते हैं



भटकन मेँ अब तक सब दिन जीते हैं.
यायावर जैसा जीवन जीते हैं.

जयमाला लिये खड़ी होगी मंज़िल,
उस क्षण हम रेगिस्तानों में होंगे.
उत्सव जब हमको ढूँढ रहा होगा,
हम आँधी के यजमानों में होंगे.

अब ऍक असंगति हो तो कह डालें,
जो हमें मिले वे सब घट रीते हैं.
यायावर जैसा जीवन जीते हैं.

वैसे प्यासों के फूल बताशे हैं,
पर स्वयं जन्म से ही हम प्यासे हैं.
यों धुआँ-धुआँ अस्तित्व किये फिरते,
लेकिन दुनिया के लिये तमाशे हैं.

सागर से सूरज जितना ला देता,
बस उतना खारा जल हम पीते हैं.
यायावर जैसा जीवन जीते हैं.

जब बहुत विकल होकर हम रो देते,
पर्वत तक पर नंदन वन बो देते.
मिल जाये जग को सावन का मौसम,
बन बूँद-बूँद हम सब कुछ खो देते.

बन गये डाकिये यक्ष प्रिया के भी,
दुनिया को हमसे बड़े सुभीते हैं.
यायावर जैसा जीवन जीते हैं.

Thursday, September 14, 2006

हाँ महासिन्धु होगे खारे जल के


गंगाजल वाले कलश नहीं हो तुम,
हाँ महासिन्धु होगे खारे जल के.

ये अधर हमारे रेगिस्तानी हैं,
पर रामानुज जैसे अभिमानी हैं.
ओ क्रुद्ध परशुधर तुमसे ही हमको,
सारी भूलें स्वीकार करानी हैं.

गम्भीर नहीं तुम नीली झीलों से,
आधे जल वाली गागर से छलके.
हाँ महासिन्धु होगे खारे जल के.

कन्धों पर यात्रा हमें नहीं करनी,
अपनी झमता से वैतरणी तरनी.
वंचित रहना स्वीकार हमें लेकिन,
भिक्षा के यश से गोद नहीं भरनी.

तुम कल्पमेघ तो हमको नहीं लगे,
गर्जन वाले बस बादल हो हलके.
हाँ महासिन्धु होगे खारे जल के.

तुम आयोजक आँधी तूफ़ानों के,
हम सहज सरल नाविक जलयानों के.
हर भँवर फँसी पीढ़ी दुहरायेगी,
आख्यान हमारे ही अभियानों के.

जब-जब भी जलते अधरों पर साधे,
मायावी ओसकणों से तुम ढलके.
हाँ महासिन्धु होगे खारे जल के.

Saturday, September 09, 2006

मेरा जन्म अधर के घर हो जाता है.



गर्म करे जब अन्तर्दाह नयन-जल को.
रोम-रोम जब चैन नहीं पाऍ पल को.
भावुकता का हाथ कलम पर जाता है,
मेरा जन्म अधर के घर हो जाता है.

वाणी का विलास मेरी परिभाषा है.
घोर निराशा को भी मुझसे आशा है.
वैसे केवल शब्दों का क्रम ही तो हूँ,
लेकिन मेरे बिना न रसमय भाषा है.

अपने सृष्टा का भावुक अभिनन्दन हूँ.
प्रेम और पीड़ा का मौलिक वंदन हूँ.
साँस-साँस मेरी, संवेदन में डूबी,
हर तपते माथे पर शीतल चंदन हूँ.

क्रोंच सरीखा व्याकुल होता जहाँ सपन.
अनायास उगते आँखों में लाल रतन.
करुणा का व्यक्तित्व सजग हो जाता है,
मेरा जन्म अधर के घर हो जाता है.

राजकुँवर सा लगता हूँ सर के रथ में.
पग-पग पर उत्सव रचता चलता पथ में.
संस्कृतियों का प्राण, कला का आभूषण,
मोती सा बिंध गया कल्पना की नथ में.

हर भाषा, हर जाति मुझे दुलराती है.
सुख-दुख दोनों में, पुलकित हो जाती है.
मेरा आकर्षण, मेरी स्वाभाविकता,
मेरी बात हृदय का तल छू जाती है.

कालिदास को अपनी आकृति यक्ष लगे.
सूरदास के नयनों में जब दृष्टि जगे.
कण-कण दर्शन का उद्गम हो जाता है.
मेरा जन्म अधर के घर हो जाता है.