Sunday, September 17, 2006

कुछ तो होना ही था आखिर मेरे सपनों का



कुछ तो होना ही था आखिर मेरे सपनों का.
या तो ये सच ही हो जाते या फिर टूट गये.

टूटे सम्बन्धों को चाहा लेकिन नहीं जुड़े.
वन को जाते राम कि जैसे वापस नहीं मुड़े.
सुन रे मन इसमें कोई अनहोनी बात नहीं,
पंखहीन थे पंछी इच्छाओं के नहीं उड़े.

कुछ तो होना ही था आखिर मेरे अपनों का.
या तो ये खुश ही हो जाते या फिर रूठ गये.

आँखों से शबनम जन्मी पर मौसम वही रहा.
सूरज जैसा तपा, मगर तम का आरोप सहा.
वैसे, मन के सागर में दिन रात ज्वार उठते,
पर पीड़ा का शिलाखंड तो तिल भर नहीं बहा.

कुछ तो होना ही था आखिर कल्पित रत्नों का.
या तो ये अंजलि में आते या फिर छूट गये.

इस युग में भी संवेदन से रीत नहीं पाया.
किसी पराजित प्रतियोगी को जीत नहीं पाया.
आशा तो कर में जयमाल लिये थी पर मैंने,
उत्सव में सम्मोहन वाला गीत नहीं गाया.

कुछ तो होना ही था आखिर भावुक वचनों का.
दृग से बहते या तो फिर अधरों से फूट गये.

1 Comments:

At 9:23 PM, Blogger mahek shree said...

संजीव जी
सुनरे मन इसमे कोई नई बात नही
बहुत मार्मिक बात है .
जैस कि आप जानते ही है हम यह नये है .आपके
मार्गदर्शन से हम सुबीर संवाद पहुंच तो गये पर यदि आप
कुछ जानकारी और देंगें तो इनायत होगी .

 

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