Saturday, September 09, 2006

मेरा जन्म अधर के घर हो जाता है.



गर्म करे जब अन्तर्दाह नयन-जल को.
रोम-रोम जब चैन नहीं पाऍ पल को.
भावुकता का हाथ कलम पर जाता है,
मेरा जन्म अधर के घर हो जाता है.

वाणी का विलास मेरी परिभाषा है.
घोर निराशा को भी मुझसे आशा है.
वैसे केवल शब्दों का क्रम ही तो हूँ,
लेकिन मेरे बिना न रसमय भाषा है.

अपने सृष्टा का भावुक अभिनन्दन हूँ.
प्रेम और पीड़ा का मौलिक वंदन हूँ.
साँस-साँस मेरी, संवेदन में डूबी,
हर तपते माथे पर शीतल चंदन हूँ.

क्रोंच सरीखा व्याकुल होता जहाँ सपन.
अनायास उगते आँखों में लाल रतन.
करुणा का व्यक्तित्व सजग हो जाता है,
मेरा जन्म अधर के घर हो जाता है.

राजकुँवर सा लगता हूँ सर के रथ में.
पग-पग पर उत्सव रचता चलता पथ में.
संस्कृतियों का प्राण, कला का आभूषण,
मोती सा बिंध गया कल्पना की नथ में.

हर भाषा, हर जाति मुझे दुलराती है.
सुख-दुख दोनों में, पुलकित हो जाती है.
मेरा आकर्षण, मेरी स्वाभाविकता,
मेरी बात हृदय का तल छू जाती है.

कालिदास को अपनी आकृति यक्ष लगे.
सूरदास के नयनों में जब दृष्टि जगे.
कण-कण दर्शन का उद्गम हो जाता है.
मेरा जन्म अधर के घर हो जाता है.

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