Sunday, September 17, 2006

मेरे मन के ताल में



मेरे मन के ताल में,
शंका वाली कंकरी,
तुमने फेंकी जोर से,
बहुत विकल हूँ भोर से.

खंधित तेरी साधना,
ऍक बुलबुला कह गया.
थोड़ा सा जो धैर्य था,
लहरों के संग बह गया.

अरुणोदय में स्वर्ण-किरण,
जाने कैसे ब्याह गयी ?
अंधकार के चोर से,
बहुत विकल हूँ भोर से.

गंधवती हो गयी हवा,
चंदन के सहवास से.
किन्तु न चंदन मुक्त हुआ,
दंशन के भुजपाश से.

हे भगवान ! सुना ऐसा,
नाग और खुशबू दोनों,
बँधे प्रणय की डोर से,
बहुत विकल हूँ भोर से.

सूरजवंशी सपने भी,
हतप्रभ हो दृग से निकले.
आशा वाले शकुन सभी,
कंचन के मृग से निकले.

रूठा हुआ समय देखो,
पालागन कह गया मुझे,
सुधियों के उस छोर से,
बहुत विकल हूँ भोर से.

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